।। साहेब कबीर व गोरख नाथ की गोष्ठी ।।


एक समय गोरख नाथ (सिद्ध महात्मा) काशी (बनारस) में स्वामी रामानन्द जी (जो साहेब कबीर के गुरु जी थे) से शास्त्रार्थ करने के लिए (ज्ञान गोष्टी के लिए) आए। जब ज्ञान गोष्टी के लिए एकत्रित हुए तब कबीर साहेब भी अपने पूज्य गुरुदेव स्वामी रामानन्द जी के साथ पहुँचे थे।

 एक उच्च आसन पर रामानन्द जी बैठे उनके चरणों में बालक रूप में कबीर साहेब (पुर्ण परमात्मा) बैठे थे। गोरख नाथ जी भी एक उच्च आसन पर बैठे थे तथा अपना त्रिशूल अपने आसन के पास ही जमीन में गाड़ रखा था।
 गोरख नाथ जी ने कहा कि रामानन्द मेरे से चर्चा करो। उसी समय बालक रूप (पूर्ण ब्रह्म) कबीर जी ने कहा - नाथ जी पहले मेरे से चर्चा करें। पीछे मेरे गुरुदेव जी से बात करना।

 योगी गोरखनाथ प्रतापी, तासो तेज पथ्वी कांपी। 
काशी नगर में सो पग परहीं, रामानन्द से चर्चा करें ।
 चर्चा में गोरख जय पावै, कंठी तोरै तिलक छुड़ावै। 
सत्य कबीर शिष्य जो भयऊ, यह वतांत सो सुनि लयऊ । गोरखनाथ के डर के मारे, वैरागी नहीं भेष सवारे। 
तब कबीर आज्ञा अनुसारा, वैष्णव सकल स्वरूप संवारा । सो सुधि गोरखनाथ जो पायौ, काशी नगर शीघ्र चल आयौ। 
रामानन्द को खबर पठाई, चर्चा करो मेरे संग आई। रामानन्द की पहली पौरी, सत्य कबीर बैठे तीस ठौरी। कह कबीर सुन गोरखनाथा, चर्चा करो हमारे साथ ।
प्रथम चर्चा करो संग मेरे, पीछे मेरे गुरु को टेरे। 
बालक रूप कबीर निहारी, तब गोरख ताहि वचन उचारी।

 इस पर गोरख नाथ जी ने कहा तू बालक कबीर जी कब से योगी बन गया। कल जन्मा अर्थात् छोटी आयु का बच्चा और चर्चा मेरे (गोरख नाथ के) साथ। तेरी क्या आयु है? और कब वैरागी (संत) बन गए? 

कबके भए वैरागी कबीर जी, कबसे भए वैरागी। 
नाथ जी जब से भए वैरागी मेरी, आदि अंत सुधि लागी।। धूंधूकार आदि को मेला, नहीं गुरु नहीं था चेला । 
जब का तो हम योग उपासा, तब का फिरूं अकेला।। धरती नहीं जद की टोपी दीना, ब्रह्मा नहीं जद का टीका। शिव शंकर से योगी, नथेजदका झोली शिका ।। 
द्वापर को हम करी फावड़ी, त्रेता को हम दंडा। 
कहैं कबीर सुनों हो गोरख, मैं सब को तत्व लखाया ।। सतयुग मेरी फिरी दुहाई, कलियुग फिरौ नो खण्डा।। 
गुरु के वचन साधु की संगत, अजर अमर घर पाया।

 साहेब कबीर जी ने गोरख नाथ जी को बताया हैं कि मैं कब से वैरागी बना। साहेब कबीर ने उस समय वैष्णों संतों जैसा वेष बना रखा था। जैसा श्री रामानन्द जी ने बाणा (वेष) बना रखा था। मस्तिक में चन्दन का टीका, टोपी व झोली सिक्का एक फावड़ी (जो भजन करने के लिए लकड़ी की अंग्रेजी के अक्षर "T" के आकार की होती है) तथा एक डण्डा (लकड़ी का लट्ठा) साथ लिए हुए थे। 

ऊपर के शब्द में कबीर परमेश्वर जी ने कहा है कि जब कोई सृष्टि (काल सष्टि) नहीं थी तथा न सतलोक सष्टि थी तब मैं (कबीर) अनामी लोक में था और कोई नहीं था। चूंकि साहेब कबीर ने ही सतलोक सष्टि शब्द से रची तथा फिर काल (ज्योति निरंजन-ब्रह्म) की सष्टि भी सतपुरुष ने रची। जब मैं अकेला रहता था 

जब धरती (पथ्वी) भी नहीं थी तब से मेरी टोपी जानो। ब्रह्मा जो गोरखनाथ तथा उनके गुरु मच्छन्दर नाथ आदि सर्व प्राणियों के शरीर बनाने वाला पैदा भी नहीं हुआ था। तब से मैंने टीका लगा रखा है अर्थात् मैं (कबीर) तब से सतपुरुष आकार रूप मैं ही हूँ। 

सतयुग-त्रेतायुग-द्वापर तथा कलियुग ये चार युग तो मेरे सामने असंख्यों जा लिए। कबीर परमेश्वर जी ने कहा कि हमने सतगुरु वचन में रह कर अजर-अमर घर (सतलोक) पाया । इसलिए सर्व प्राणियों को तत्व (वास्तविक ज्ञान) बताया है कि पूर्ण गुरु से उपदेश ले कर आजीवन गुरु वचन में चलते हुए पूर्ण परमात्मा का ध्यान सुमरण करके उसी अजर-अमर सतलोक में जा कर जन्म-मरण रूपी अति दुःखमयी संकट से बच सकते हो। 

इस बात को सुन कर गोरखनाथ जी ने पूछा हैं कि आपकी आयु तो बहुत छोटी है अर्थात् आप लगते तो हो बालक से। 
जो बूझे सोई बावरा, क्या है उम्र हमारी। 
असंख युग प्रलय गई, तब का ब्रह्मचारी ।।टेक ।। 
कोटि निरंजन हो गए, परलोक सिधारी। 
हम तो सदा महबूब हैं, स्वयं ब्रह्मचारी।। 
अरबों तो ब्रह्मा गए, उनन्चास कोटि कन्हैया। 
सात कोटि शम्भू गए, मोर एक नहीं पलैया।। 
कोटिन नारद हो गए, मुहम्मद से चारी। 
देवतन की गिनती नहीं है, क्या सष्टि विचारी।। 
नहीं बुढ़ा नहीं बालक, नाहीं कोई भाट भिखारी। 
कहै कबीर सुन हो गोरख, यह है उम्र हमारी।। 

श्री गोरखनाथ सिद्ध को सतगुरु कबीर साहेब अपनी आयु का विवरण देते हैं। असंख युग प्रलय में गए। तब का मैं वर्तमान हूँ अर्थात् अमर हूँ। करोड़ों ब्रह्म ( क्षर पुरूष अर्थात् काल) भगवान मत्यु को प्राप्त होकर पुनर्जन्म प्राप्त कर चुके हैं।
हम ही अविनाशी है ( मैं कबीर ही अविनाशी परमात्मा हुं जिसे आप आम बालक समझ रहें हो ) 

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